आत्म-विश्वास अच्छा है, पर अति-आत्मविश्वास अतिघातक। कल दोस्तों के साथ निकला नुक्कड़ पे चाय पीने। एक बड़ी गाड़ी से कुछ लोग उतरे, उसी दूकान पे, बड़ी धौंस दिखता हुआ एक बोला-'चाय देना चार, अदरक वाली , और थोड़ा जल्दी'। संभ्रांत लग रहा था, पहनावे और क्रिया-कलाप से। पर, उसके साथ जो लोग थे, बड़ी लीचड़ लग रहे थे , कोट, टाई, सूट-बूट सब पहना था उनलोगों ने पर, हाव-भाव से निहायत ही घटिया दिख रहे थे वोह लोग। उनमे से एक ने चापलूसी में थोडा अकड़ कर कहा, अगर चाय अच्छी न हुई, तो अपनी दूकान बंद ही समझो, ये साहब प्रशासन में नए आये हैं। और अगर अच्छी हुई तो डिप्टी कलेक्टर ऑफिस के सामने नयी दूकान खुलवा देंगे। बेचारा चाय वाला, सकपका गया, और चाय खलिश दूध कि बनायीं, चायपत्ती भी उसने अलग से डाली। चाय वाले ने डरते-डरते चाय दी। अच्छी बनी होगी, तभी तो सूट-बूट वाले सज्जन ने कहा, कल मेरे ऑफिस में आना , एक चाय कि दूकान खुलवानी है।
अब चाय कि दूकान खुली कि नहीं खुली, या खुलेगी कि नहीं खुलेगी, मुझे रह-रह कर उस चापलूस का क्रिया-कलाप देख के अजीब लग रहा था। बड़ी ही निर्दय जीव होते हैं ये चापलूसी करने वाले, अपनी शिक्षा , अपना व्यक्तितव सब भूल जाते हैं चापलूसी के दौरान। भगवान् ने बड़ी फुरसत में बनाया होगा, या बनाते होंगे इस विचित्र प्रजाति के लोगों को। सब तरफ हैं ये, सर्व-व्यापी। न आगे देखते हैं न पीछे बस बोल डालते हैं, उल-जुलूल, अगड़म-बगड़म, अनाप-शनाप। अब उन्हें क्या मतलब अपने व्यक्तव्य से। जिसे जो समझना है समझे, उन्होंने तो अपना काम कर दिया, साहब शायद नया प्रोजेक्ट कि कमान ही सौंप दें, या तरक्की ही दे दें। पता नहीं, जब हम जैसे छोटे लोग ये सब समझ जाते हैं तो ये बड़े लोग, बड़ी हैसियत वाले भी समझते होंगे, पर क्या करें, हार के झटके से तो ये मलहम ही भला। क्या पता आगे क्या हो ? यही लोग तो चाय में चासनी डाल के उसका स्वाद बढ़ाते हैं। चटोरे ही सही, अति-आत्मा-विश्वास से लबरेज तो हैं, उनपे जिनपे बोलने का जिम्मा है, उन्होंने तो मौन व्रत धारण किया हुआ है। कोई बात नहीं, अब और नहीं देखना पड़ेगा, मौनी बाबा को, नानाजी को भी १९५२ में, एक मौनी बाबा ने टक्कर दी थी, और ५२००० वोट भी लाया था वोह। इस बार तो चाय वालों से ज्यादा इन चटोरों से खतरा है। मैं तो समझ गया क्या गत होने वाली है, पता नहीं ये कब समझेंगे, नाव डूबा के ही दम लेंगे शायद।
अब चाय कि दूकान खुली कि नहीं खुली, या खुलेगी कि नहीं खुलेगी, मुझे रह-रह कर उस चापलूस का क्रिया-कलाप देख के अजीब लग रहा था। बड़ी ही निर्दय जीव होते हैं ये चापलूसी करने वाले, अपनी शिक्षा , अपना व्यक्तितव सब भूल जाते हैं चापलूसी के दौरान। भगवान् ने बड़ी फुरसत में बनाया होगा, या बनाते होंगे इस विचित्र प्रजाति के लोगों को। सब तरफ हैं ये, सर्व-व्यापी। न आगे देखते हैं न पीछे बस बोल डालते हैं, उल-जुलूल, अगड़म-बगड़म, अनाप-शनाप। अब उन्हें क्या मतलब अपने व्यक्तव्य से। जिसे जो समझना है समझे, उन्होंने तो अपना काम कर दिया, साहब शायद नया प्रोजेक्ट कि कमान ही सौंप दें, या तरक्की ही दे दें। पता नहीं, जब हम जैसे छोटे लोग ये सब समझ जाते हैं तो ये बड़े लोग, बड़ी हैसियत वाले भी समझते होंगे, पर क्या करें, हार के झटके से तो ये मलहम ही भला। क्या पता आगे क्या हो ? यही लोग तो चाय में चासनी डाल के उसका स्वाद बढ़ाते हैं। चटोरे ही सही, अति-आत्मा-विश्वास से लबरेज तो हैं, उनपे जिनपे बोलने का जिम्मा है, उन्होंने तो मौन व्रत धारण किया हुआ है। कोई बात नहीं, अब और नहीं देखना पड़ेगा, मौनी बाबा को, नानाजी को भी १९५२ में, एक मौनी बाबा ने टक्कर दी थी, और ५२००० वोट भी लाया था वोह। इस बार तो चाय वालों से ज्यादा इन चटोरों से खतरा है। मैं तो समझ गया क्या गत होने वाली है, पता नहीं ये कब समझेंगे, नाव डूबा के ही दम लेंगे शायद।
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