Monday 17 March 2014

काशी और कुत्ते !

पुरानी कहावत है-' सब कुत्ते काशी जायेंगे तो हड़िया कौन ढून्-ढुनायेगा ? अब इस कलयुग में काशी की महत्ता बढ़ी है या घटी है , मैं यह तो नहीं कहूंगा; पर इतना अवश्य है कि वर्त्तमान चुनावी परिदृश्य में इसकी चर्चा खूब होगी। सरे झंझावातों से लड़कर माननीय मोदी जी अब इस संसदीय क्षेत्र को सुशोभित  करने के लिए कमर कस चुके हैं। और पंडितों ने भविष्यवाणी कि है कि अगर काशी से भगवन भोले शंकर का आशिर्वाद मिल गया तो फिर दिल्ली की राजगद्दी पे राजतिलक शायद ही कोई रोक पायेगा।

अभी देश का राजनितिक परिदृश्य देखने लायक है, जिसकी जहाँ दाल गल रही है वहाँ पहुँच रहा है, गाजे-बाजे के साथ। द्वापर युग से  भगवान् कृष्ण के पूजक  दल तो मग्न है वर्त्तमान सरकार के कु-कृत्यों पर, सो, अभी भगवा और भगवान् से दूरी ही श्रेयस्कर है।

पर, भारतीय राजनीती की उस  नयी नवेली दुल्हन का क्या जिसकी दुर्दशा इतनी जल्दी होगी , सबने नहीं सोचा होगा ; उनलोगों ने भी ऐसी कल्पना नहीं की होगी। मैं कसम खता हूँ कि ये नहीं करूँगा--अभी ये बात फिज़ां में गूंजती ही रहती है की वो कर देते हैं। इतनी मानसिक अस्थिरता ? भगवान् भी नहीं जानते होंगे कि अगले पल वो क्या करेगा। अब काशी कि राह पकड़ी है, भोले शंकर की मज़बूरी है, आशीर्वाद तो एक को ही दे सकते हैं; बाकि आशीर्वाद काशी के लोग दे देंगे। पता नहीं, सनकी नेता अपने साथ कुत्तों कि फ़ौज़ लेके आयें, सो कुत्ते भी गुर्राएंगे अपने अधिकार क्षेत्र कि रक्षा के लिए। और कुत्तों के काटने से सुई कितनी लगती है, बताने कि ज़रुरत है क्या?

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