Monday 31 March 2014

लोकतंत्र के महापर्व की हवा



एक दूसरे को नीचा, कमजोर, कामचोर, भ्रस्ट और निकम्मा दिखने कि होड़ है; कीचड़ उछालना, भद्दी-भद्दी गालिआं देना, कुछ पे चुनाव आयोग का डंडा चलना, सभी पार्टिओं को आचार-संहिता का पालन करनेकी नसीहत देना आम बात है। कुछ अपनी मर्दानगी से मतदाताओं को डराने में लगे है, तो कुछ अपने मोह-पाश में सबको बांध लेने में। कुछ तो बाकि सारे नेताओं के नस्ल को ही चोर-चुहाड़ कहने में लगा है तो कुछ काल-भैरव (कुत्ता)से आशीर्वाद लेने में। जिसकी जहाँ बन पड़ रही है, वहीँ निकटवर्ती मंदिरों में सर झुकाये, ललाट पे टिका चन्दन लगाये या, मस्जिदों, मज़ारों पे चादर चढ़ाते दिख रहा है।  श्रद्धावश नहीं , लालच-वश-- वोट का लालच, नोट का लालच, कुर्सी, जुत्ता, शक्ति, और न जाने क्या क्या चीज़ का। ये दिखावा , दम्भ में डूबे आशान्वित प्रत्याशी लालायित हैं, जीत के लिए। सब तो नहीं, पर ज्यादातर दिखाऊ और भयंकर लोभी ही हैं। जी हाँ, हवा भी बड़ी जोरदार चल रही है, या, चलने का हौवा दिखाया जा रहा है, पता नहीं; पर चाल, चरित्र हाव-भाव तो बस यही बता रहे हैं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के महापर्व में ये किसी और कि हवा निकालें न निकलें अपनी हवा ख़राब ज़रूर करेंगे, और कर भी रहे हैं।  वैसे सबकी सांस अटकी है कि आने वाला समय भारत किस दिशा में जायेगा, पता नहीं। आप पर निर्भर है ये दिशा क्या होगी, ऊंट किस ओरे बैठेगा या किसकी हवा निकलेगी?

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