Friday 31 January 2014

गांधीजी की आत्मा

कल महत्मा जी की पुण्य-तिथि थी। जाहिर है मीडिया में इसे पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए थी, मिली, पर उतनी नहीं जितनी उम्मीद थी। सारा समय और संचार माध्यम का ध्यान तो एक विधयक जी ने ले ली। क्यों यह सब को पता है, केजरीवाल जी लोकसभा चुनाव में दिल्ली में और बेहतर प्रदर्शन कि उम्मीद में कुछ वैसे कदम उठाते जा रहे हैं, जिससे लोगों का मोह भंग होने लगा है। वैसे मुद्दे जिसे सब पढ़े-लिखे लोग समझता हैं और न छेड़ना ही बेहतर समझते हैं, उन्हें छेड़ने में केजरीवाल जी वीरता समझते हैं शायद, तभी तो चौरासी के दंगे, बटला हाउस आदि उन्हें अनायास ही स्मरण हो जाता है, पर इसके अलावे भी कई मुद्दे हैं, बेहद जरूरी और अति-महत्वपूर्ण उन्हें वोट दिलाऊ नहीं लग रहे। अब कल का काण्ड सुनियोजित था या असुनियोजित मंथन का विषय तो है, पर क्लिष्ट नहीं। क्या चाल चलने सिर्फ उन्हें ही आता है ? सब इस खेल में माहिर हैं। सो, उन्हें अब अपनी रोटी सोच समझ से सेकनी होगी, नहीं तो रोटी भी जलेगी और हाथ भी, सपना टूटेगा सो अलग।

महात्मा गांधी क्या चाहते थे? और चउदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को जब सारा देश जश्न या मार-काट में जुटा था और नेहरूजी भाषण और भारतवासिओं को दिवा-स्वपन दिखने में लगे थे, बेचारे महात्मा कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी का आखिरी चमत्कार कर रहे थे। आश्चर्य जनक रूप से जब सारा उत्तर भारत दंगो से जूझ रहा था, कलकत्ता शांत था। उस समय क्या बीजेपी वाले थे दंगों में शामिल ? नहीं ना ? फिर आज ये प्रश्न बार बार क्यों? क्योंकि कुर्सी की खातिर नेहरु जी ने उस समय भी समझौता करना मुनासिब नहीं समझा था, और उनके वंसज अब भी  नहीं कर रहे हैं। अगर देशहित ही सर्वोपरि था, तो जिन्ना को प्रधानमंत्री की कुर्सी  देके रोक सकते थे वो विभाजन, पर उन्होंने नहीं रोकी। गांधी जी जो चाहते थे, उसका छटांक भर भी नहीं हुआ। अब छेयाषठ वर्षों के बाद भारत को उनकी इच्छा की तरह बनाने का दावा या दम्भ क्यों ?

इतिहास गवाह है कि नेहरू जी अपनी बात थोपवाने के लिए पटेल साहब, राजेंद्र प्रसाद जी, मौलाना आज़ाद जी, सबसे वैमनस्य पाली। और उनके वंसज अब उनकी ही सोच और जोश को नए तरीके से भारत में फैलाना चाहते हैं। पर नाम गांधी जी का। अन्यथा कश्मीर कि तरह सिंध-पंजाब प्रान्त कि कमान भी जिन्ना को सौंप देते, जैसा  की गांधी जी ने कहा था-- ऑटोनोमस डेमोक्रेसी के लिए।  पर ऐसा हुआ नहीं या जान बुझ के किया नहीं गया, क्योंकि, फिर विकास के अलावे विषय कहाँ बचता ?

 सिर्फ चुनाव के समय, अल्पसंख्यकों का गुणगान और चिंता सब कुछ साफ़-साफ़ बयां करती है। अगर, कुर्सी का मोह छोड़ उनके वंसज समेकित और समग्र समाज और देश के विकास की बात  करते तो कितना अच्छा होता।  पर चाटुकार नीतिकारों ने सब कुछ ताक़ पर रख दिया है और उल-जुलूल भाषण दिलवाते रहते हैं महोदया एवं उनके सुपुत्र से। गंजा-कंघी, और गांधी जी कि इच्छा के बारे में निसंदेह इन्होने नहीं पढ़ा होगा, वो वही मंच पे जाके पढ़ देते हैं, जो उन्हें दिया जाता है। अब बस कीजिये चाटुकार समुदाय वालों। देशहित और काल के अनुरूप भाषण तैयार करके उन्हें दीजिये, जिससे वैमनस्यता बढे नहीं घटे। पर, मुझे पता है आप ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि आपका महत्व और पहुँच जो घट जायेगी। और, कोई भी चाटुकारिता में ऐसे थोड़े ही घुसता है, अपना व्यक्तित्व, अपना वज़ूद सब कुछ कि बलि चढ़ा देता है, फिर उसके लिए देश क्या और देशवासी क्या?

गांधी जी यूँ तो उन्नीस सौ अडतालीस में मारे गए, पर उनकी आत्मा अब भी भटक रही है, मोक्ष कि तलाश में। या फिर, कैद कर ली गयी है, ताकि रह-रह कर वो कांग्रेस  वालों को दर्शन देते रहें और उन्हें फलाना-फलाना काम करने कि सलाह देते रहें। पता नहीं भारत उनकी सोच जैसा या उससे मिलता-जुलता कब बनेगा। पूरी ज़िन्दगी उन्होंने कोई कुर्सी नहीं ली, पर उनके परम-अनुयायी कुर्सी कुर्सी का रट लगा रहे हैं। इस कुर्सी के खेल में बेचारे गांधीजी कि आत्मा भटक रही है, और पता नहीं कब तक भटकेगी।

भगवान् गांधी जी कि आत्मा को शांति दें !


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